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Tuesday, January 26, 2010

धर्मान्धता

जब पवित्रता, उदारता, बंधुत्व, करूणा, ज्ञान और भक्ति अपनी चरम सीमा को पहुंच कर एक ही व्यक्ति के रूप में इस धरातल पर अवतरित होते है तब समाज उसे ईश्वर समझ पूजने लगता है जैसे जैसे समय बीतता है वैसे वैसे उस पुण्यवान के बारे में यह धारणा और भी ज्यादा ठोस होती जाती है इस व्यक्ति के नाम से एक धर्म की शुरूआत हो जाती है उसे धर्मसंस्थापक की संज्ञा मिल जाती है ख्रिस्त, बुध्द, राम, कृष्ण, महावीर, नानक जैसे महापुरूषों के नाम उदाहरण के तौर पर लिये जा सकते है

ऐसे पुण्यात्मा को सारे जीवो में बसी सनातन और स्थायी दिव्यता का अनायास ही ज्ञान होता है मन और बुध्दि के परे स्थित चिदात्मा का उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त होता है उनके लिये न कोई बडा होता है और न कोई छोटा लाखों सामान्य जन प्रेम और करूणा से ओतप्रोत ऐसे महापुरूष के अनुयायी औैर भक्त हो जाते हैउसकी पूजा करने लगते है इन भक्तों का उसके प्रति अनन्य विश्वास होता है एक सन्त और उसके अनुयायी मिलकर एक सम्प्रदाय या धर्म बना लेते हैं

केवल मेरा ही धर्म सत्य है बाकी सब बकवास यह विचार धीरे धीरे जनमानस के दिमाग पर छाने लगता है। धर्मान्धता की यहीं से शुरूआत होती है। विश्वास का विकृत स्वरूप ही धार्मिक कट्टरतावाद का रूप धारण करता है। इसका मुख्य कारण है उस महात्मा के उपदेश और सन्देश के सच्चे अर्थ का ज्ञान न होना। विश्वास से ज्ञान श्रेष्ठ होता है लेकिन यह ज्ञान प्राप्त करना अति काठिन है इसके लिये आवश्यक होती है साधना। विषय, इंद्रियां और मन का संयम बडा कठिन अभ्यास है जो सामान्य जन नहीं कर पाते।

Friday, July 3, 2009

समाज और सिनेमा

भारतीय सिनेमा के आरंभिक दशकों में जो फिल्में बनती थीं उनमें भारतीय संस्कृति की महक रची बसी होती थी तथा विभिन्न आयामों से भारतीयता को उभारा जाता था। बहुत समय बाद पिछले दो वर्षों में ऐसी दो फिल्में देखी हैं जिनमें हमारी संस्कृति की झलक थी, हम दिल दे चुके सनम और हम साथ साथ हैं। हां देश के आतंकवाद पर भी कुछ अच्छी सकारात्मक हल खोजतीं फिल्में आई हैं , फिजां और मिशन कश्मीर।आज एक सफल फिल्म बनाने का मूल मन्त्र है, खूबसूरत विदेशी लोकेशनें, बडे स्टार, विदेशी धुनों पर आधारित गाने।

बीच में कुछ ऐसी फिल्में भी आईं जिनके निर्माताओं का काम था भारत की कुरीतियों, विषमताओं और विवादित मुद्दों पर फिल्म बना दर्शकों का विदेशी बाजार बनाना और घटिया लोकप्रियता हासिल करना । कामसूत्र, फायर आदि ऐसी ही फिल्में हैं। कमल हासन की हे राम भी खासी विवादित रही।वैसे कुल मिला कर देखा जाए तो भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ने काफी तकनीकी तरक्की कर ली है। अब जैसे जैसे फिल्मव्यवसाय बढ रहा है फिल्मों के प्रति दर्शकों की सम्वेदनशीलता घट रही है।

आज हमारे युवाओं के पास विश्वभर की फिल्में देखने और जानकारी के अनेक माध्यम हैं।हाल ही की घटनाओं ने फिल्म व्यवसाय पर अनेकों प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं। गुलशन कुमार की हत्या, राकेश रोशन पर हुए कातिलाना हमले, फिल्म चोरी-चोरी चुपके-चुपके के निर्माता रिजवी व प्रसिध्द फाईनेन्सर भरत शाह की माफिया सरगनाओं से सांठ-गांठ के आरोप में गिरफ्तारी, इन प्रश्नों और संदेहों को पुख्ता बनाती है कि हमारा फिल्म उद्योग माफिया की शिकस्त में बुरी तरह घिरा है।

आज भारत साल में सर्वाधिक फिल्में बनाने में अग्रणी है, माना अत्याधुनिक उपकरणों, उत्कृष्ट प्रस्तुति के साथ यह नए युग में पहुंच चुका है, लेकिन गुणवत्ता के मामलों में भारतीय सिनेमा को और भी दूरी तय करनी है। साथ ही यह तय करना है कि समाज के उत्थान में उसकी क्या भूमिका हो अन्यथा टेलीविज़न उसे पीछे छोड देगा। कितना ही आधुनिक हो जाए भारत, यहां राम अभी तक नर में हैं और नारी में अभी तक सीता है।