जब पवित्रता, उदारता, बंधुत्व, करूणा, ज्ञान और भक्ति अपनी चरम सीमा को पहुंच कर एक ही व्यक्ति के रूप में इस धरातल पर अवतरित होते है तब समाज उसे ईश्वर समझ पूजने लगता है। जैसे जैसे समय बीतता है वैसे वैसे उस पुण्यवान के बारे में यह धारणा और भी ज्यादा ठोस होती जाती है। इस व्यक्ति के नाम से एक धर्म की शुरूआत हो जाती है। उसे धर्मसंस्थापक की संज्ञा मिल जाती है। ख्रिस्त, बुध्द, राम, कृष्ण, महावीर, नानक जैसे महापुरूषों के नाम उदाहरण के तौर पर लिये जा सकते है।
ऐसे पुण्यात्मा को सारे जीवो में बसी सनातन और स्थायी दिव्यता का अनायास ही ज्ञान होता है। मन और बुध्दि के परे स्थित चिदात्मा का उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त होता है। उनके लिये न कोई बडा होता है और न कोई छोटा। लाखों सामान्य जन प्रेम और करूणा से ओतप्रोत ऐसे महापुरूष के अनुयायी औैर भक्त हो जाते है। उसकी पूजा करने लगते है। इन भक्तों का उसके प्रति अनन्य विश्वास होता है। एक सन्त और उसके अनुयायी मिलकर एक सम्प्रदाय या धर्म बना लेते हैं।
केवल मेरा ही धर्म सत्य है बाकी सब बकवास यह विचार धीरे धीरे जनमानस के दिमाग पर छाने लगता है। धर्मान्धता की यहीं से शुरूआत होती है। विश्वास का विकृत स्वरूप ही धार्मिक कट्टरतावाद का रूप धारण करता है। इसका मुख्य कारण है उस महात्मा के उपदेश और सन्देश के सच्चे अर्थ का ज्ञान न होना। विश्वास से ज्ञान श्रेष्ठ होता है लेकिन यह ज्ञान प्राप्त करना अति काठिन है इसके लिये आवश्यक होती है साधना। विषय, इंद्रियां और मन का संयम बडा कठिन अभ्यास है जो सामान्य जन नहीं कर पाते।