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Friday, July 3, 2009

समाज और सिनेमा

भारतीय सिनेमा के आरंभिक दशकों में जो फिल्में बनती थीं उनमें भारतीय संस्कृति की महक रची बसी होती थी तथा विभिन्न आयामों से भारतीयता को उभारा जाता था। बहुत समय बाद पिछले दो वर्षों में ऐसी दो फिल्में देखी हैं जिनमें हमारी संस्कृति की झलक थी, हम दिल दे चुके सनम और हम साथ साथ हैं। हां देश के आतंकवाद पर भी कुछ अच्छी सकारात्मक हल खोजतीं फिल्में आई हैं , फिजां और मिशन कश्मीर।आज एक सफल फिल्म बनाने का मूल मन्त्र है, खूबसूरत विदेशी लोकेशनें, बडे स्टार, विदेशी धुनों पर आधारित गाने।

बीच में कुछ ऐसी फिल्में भी आईं जिनके निर्माताओं का काम था भारत की कुरीतियों, विषमताओं और विवादित मुद्दों पर फिल्म बना दर्शकों का विदेशी बाजार बनाना और घटिया लोकप्रियता हासिल करना । कामसूत्र, फायर आदि ऐसी ही फिल्में हैं। कमल हासन की हे राम भी खासी विवादित रही।वैसे कुल मिला कर देखा जाए तो भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ने काफी तकनीकी तरक्की कर ली है। अब जैसे जैसे फिल्मव्यवसाय बढ रहा है फिल्मों के प्रति दर्शकों की सम्वेदनशीलता घट रही है।

आज हमारे युवाओं के पास विश्वभर की फिल्में देखने और जानकारी के अनेक माध्यम हैं।हाल ही की घटनाओं ने फिल्म व्यवसाय पर अनेकों प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं। गुलशन कुमार की हत्या, राकेश रोशन पर हुए कातिलाना हमले, फिल्म चोरी-चोरी चुपके-चुपके के निर्माता रिजवी व प्रसिध्द फाईनेन्सर भरत शाह की माफिया सरगनाओं से सांठ-गांठ के आरोप में गिरफ्तारी, इन प्रश्नों और संदेहों को पुख्ता बनाती है कि हमारा फिल्म उद्योग माफिया की शिकस्त में बुरी तरह घिरा है।

आज भारत साल में सर्वाधिक फिल्में बनाने में अग्रणी है, माना अत्याधुनिक उपकरणों, उत्कृष्ट प्रस्तुति के साथ यह नए युग में पहुंच चुका है, लेकिन गुणवत्ता के मामलों में भारतीय सिनेमा को और भी दूरी तय करनी है। साथ ही यह तय करना है कि समाज के उत्थान में उसकी क्या भूमिका हो अन्यथा टेलीविज़न उसे पीछे छोड देगा। कितना ही आधुनिक हो जाए भारत, यहां राम अभी तक नर में हैं और नारी में अभी तक सीता है।